चंद रोज़ और मेरी जान
कहते हैं, “कविताओं को जिये बिना उन्हें रचा नहीं जा सकता” कवितायेँ परवान चढ़ती हैं, ख़लिश और मोहब्बत की सोहबत में. इस सच का मुज़ाहिरा फैज़ और ऐलिस से बेहतर कौन कर पाया है! गोया कि फैज़ लिखा करते थे लाजवाब हर्फों में बुना जीवन और ऐलिस उन हर्फों को जीती थीं. एक दूसरे को लिखे गए उनके ख़तों से इस शिद्दत का पता चलता है. दोनों एक दूसरे को लिखने के दौरान मानवता का एहतराम करते थे. सन 1951 से 1955 के बीच फैज़ अहमद फैज़ पाकिस्तान में हिरासत में थे. उनकी पत्नी ऐलिस ब्रितानी मूल की थीं. दोनों एक दूसरे से जिस्मानी तौर पर कितने जुदा थे लेकिन ख़तों के सहारे उतने ही नज़दीक. “चंद रोज़ और मेरी जान “ उन्ही ख़तों पर आधारित प्रस्तुति है. ये ख़त हमारी आशाओं, आकांक्षाओं और इच्छाओं की आवाजें हैं.ये हमारे आने वाले कल के गीत हैं. इनसे रूबरू होते हुए लगता है, जीवन में मकसद हो और वह साफ़ हो तो आशाएं रौशन रहती हैं और सपने कभी मरते नहीं. सलीमा रज़ा की खूबसूरत आवाज़ , बनवारी तनेजा की जोरावर मौजूदगी अनूठा समां बांधती है और जादुई संगीत के साथ इन ख़तों की रूहानी जुस्तजू इस प्रस्तुति को एक नया आयाम देती है.
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